शनिवार, 21 दिसंबर 2013

माँ की दुविधा

सोच रही हूँ तुमसे कुछ कहूँ,सुनोगे बेटा
माँ हूँ,पर डरती हूँ नए ज़माने के नए सलीकों
नए सवालों से,थोडा तुम्हारी उठती उम्र और
अपनी पुरानी पड़ती सोच का भी डर है.....

जानते हो, जब तुमने पहली बार मेरी कोख में
करवट ली थी,धीमे से कई अनदेखे ख़्वाब,
अनघड ख्वाइशों ने भी ली थी अंगड़ाई दिल में
और तबसे ही सपनो के ताने-बाने बुनती रही हूँ|

तबसे अबतक हर दिन कभी तुम्हेँ, डाक्टर,कभी
इंजीनियर,कभी आर्किटेक्ट तो कभी सीए  बनाती
कभी सजाती फ़ौजी वर्दी तो कभी पुलिस यूनिफार्म
तो कभी बना तुम्हे पाइलेट सपनो के जहाज उडाती,

और तुम अपनी तुतली जुबान से कहते हर बार
माँ जो तुम कहोगी कर जाऊंगा,एक बार बड़ा होने दो
फिर देखना तुमको राज करूँगा,मैं बस हंस देती.....

जानती हूँ तुम आज भी अपनी बात पर कायम हो,
मैं तुम्हारी पहली चाहत हूँ आज भी,हर बात पर
अब  भी तुम सबसे पहले "माँ"ही पुकारते हो.… :-)
और निहाल हो जाती हूँ तुम्हारी पुकार पर

फिर भी जाने क्यूँ एक अंजाना सा डर, डराता है
तुम कहीं भटक ना जाओ दुनिया कि चकाचौंध मैं
सोच के ही मन मेरा घबराता है......
आँचल से बांधे रखना चाहती हूँ तुम्हें। …।


तुम खड़े हो बचपन और जवानी की देहलीज़ पर
जहाँ एक खुला आसमान है उड़ने को
असीम सम्भावनाये बाँहे पसारे खड़ी हैं
पर साथ ही अनजानी  भूलभुलैयाँ भी है

तुम छूना चाहते हो अपना क्षितिज़
अपने ही प्रयासों से,गर्वित हूँ लेकिन
सशंकित भी हूँ,क्या तुम सही चुनाव कर पाओगे??
कहीं ठोकर तो नहीं खाओगे????






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