मंगलवार, 10 अगस्त 2010

वो खोयी सी बचपन की गलियां...






बालों में चांदनी सी छिटकने लगी है



उम्र की फसल हौले से पकने लगी है
पर दिल अब भी भटकता है
मुड मुड़ के देखता है पीछे
वो खोयी सी बचपन की गलियां...

अभी भी वो गुडिया है मुझ को बुलाती
जिसकी शादी करनी थी बाकी..
वो हाथी,वो घोडे,वो सारे बाराती
वो प्यारा सा भालू था ढोल वाला
वो छोटा सा बंदर था बाजा बजाता
यादों में अब भी सभी घूमते है
कानो में धीरे से पूछते है..

डूबी हो अपनी दुनिया में ऐसे
हमको भुलाया,तो बोलो कैसे
तुम से ही तो थी हस्ती हमारी..
तुम जो गयी उजड़ी बस्ती हमारी

कोठरी में है गठरी गठरी में है हम
किसी को हमारी जरुरत नहीं है
तुम लौट एक बार आओ, और देखो
मनो धूल की परते हम पर जमी है..

मै चुपचाप अपने को बहला रही हूँ
अपने खिलोनो को सहला रही हूँ
तुम ही तो मेरे साथी थे पहले
तुम संग ही मेरे दिन थे रुपहले
तुम संग ही रोई हंसी भी थी तुम संग
तुम भी बस रंग गए थे मेरे रंग

मेरी गुडिया मुझ को बुला रही है
पर बालों की सफेदी डरा रही है
हंसते है बच्चे मेरे बचपने पर
उनकी हंसी मन ही मन रुला रही है..
काश वो बचपन फिर लौट आये
एक बार आकर फिर से न जाए
काश............................

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